Monday, 8 February 2016

संस्कार मेरा गाँव मेरा देश

मेरे गाँव की मिट्टी की खुशबू अब भी
मेरे तन में है
रस्मों -रिवाजों की भावना अब भी
मेरे मन में है ।
मैं दूर हूं लेकिन ह्रदय मेरा है वहीं पर रमा
पुरखों के मेरे कीर्ति की पूंजी है वहीं पर जमा ।
गाँव में नित ही मिला है स्नेह भी,
सत्कार भी,
गाते हैं मिल कर के सभी फगुआ,
मधुर मधुर मल्हार भी ।
कानों में मेरे गूंजती है आज भी सोहर की धुन
दिल मेरा है नाचता करतालो की
झंकारे सुन सुन ।
मत रोकिए मुझको यहाँ अब काव्य के
इस मंच पर
है जिक्र मेरे गाँव का बस चल गया
तो चल गया ।।
मेरे गाँव में मेरी बूढ़ी माँ आशीष की गठरी लिए
मेरे नाम की माला लिए,
मेरे नाम का जप-तप किए
कबसे खड़ी है द्वार पर बस राह मेरा ताकते
हैं आँखें उसकी थकी रहीं और पैर उसके कांपते ।
मैं यहॉं पर खो गया हूं शहर की इस भीड़ में
हूं चाहता मैं लौटना यद्यपि उस अपने नीड़ में
पर स्वप्न के मेरे परिंदे हैं मुझे अब रोकते
मैं अनिश्चय में फँसा..... अब फँस गया तो... फँस गया ।।

No comments:

Post a Comment